26 फरवरी, 2024 को मॉस्को में मल्टीपोलेरिटी फोरम में चित्रा त्रिपाठी का भाषण

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26 फरवरी, 2024 को मॉस्को में मल्टीपोलेरिटी फोरम में चित्रा त्रिपाठी का भाषण

माइ डियर फ़्रेंड्स , नमस्कार

मुझे इस कार्यक्रम का हिस्सा बनाने के लिये रुस की सरकार का,यहाँ के हमारे दोस्तों का बहुत धन्यवाद, जिनकी वजह से मुझे संयुक्त राष्ट्र संघ के विषय पर बोलने का मौक़ा मिल रहा है. मैं डिफ़ेंस स्टडीज़ की विधार्थी रही हूँ लिहाज़ा ये सब्जेक्ट मेरा सबसे प्रिय है. मैं हिंदुस्तान की उस धरती से आई हूँ जो हमेशा शांति का पक्षधर रहा है. मैं भारत की उस धरती से आई हूँ जो दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है. मैं उस इंडिया से हूँ जो दुनिया की पाँचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है और अपने कदम तेज़ी से आगे बढ़ा रहा है. हमारी आज़ादी को सौ साल नहीं हुए हैं लेकिन हमने दुनिया के पटल पर अपनी मौजूदगी पूरे धमक के साथ रखी है. हम शांति चाहते हैं, भाई चारा चाहते है, अमन चाहते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश समय समय पर हमें युद्ध का हिस्सा भी बनना पड़ा, जिसमें हम कई बार जीते भी तो कई बार अपने कदम को थामने पड़े. हांलाकि तब के और आज के भारत में बहुत फ़र्क़ है. आज हमने अपनी क़ाबिलियत और मेहनत से अपनी दुनिया बदल दी है. हम आभारी हैं अपने मित्र रूस के जिसने हमारी आज़ादी के पहले हमसे जो मित्रता की वो आज भी वैसे ही जारी है. हमारे अच्छे और मुश्किल भरे वक्त में हमारे साथ हमेशा खड़े रहने के लिये आपका शुक्रिया.

अब मैं आती हूँ अपने विषय पर-

इतिहास के समंदर का एक किनारा भारत है जहां से मैं आई हूँ और दूसरा किनारा रूस की ये धरती है। बीसवीं सदी की शुरुआत में ये माना जाता था कि इतिहास हमेशा विजेताओं का, विजेताओं के द्वारा, विजेताओं के लिए लिखा जाता है। लेकिन भारत और रूस दो ऐसे धरती रही जिसने इतिहास के इस कालचक्र को पलट दिया। एक ने सत्य, अहिंसा की राह पर चल कर शांति से तो दूसरे ने क्रांति से।

शांति और क्रांति की दो धाराओं ने मानवता को इतिहास की धुरी पर लाने में कामयाबी तो हासिल कर ली थी लेकिन उसे मुख्यधारा बनाने की ज़िम्मेदारी जिस अंतरराष्ट्रीय संस्था पर थी वो है संयुक्त राष्ट्र, जिसकी स्थापना दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुई। जंग के ज़ख़्म से कराह रही दुनिया में अमन और चैन की मशाल से रोशन करने का लक्ष्य जिसकी ज़िम्मेदारी थी, ज़िम्मेदारी है, सवाल ये है कि क्या संयुक्त राष्ट्र अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में कामयाब रहा?  क्या मौजूदा दौर में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर उठ रहे सवाल बेमायने हैं?या पूरी तरह से वाजिब.

2024 में संयुक्त राष्ट्र के पास अपने उद्धार का मौक़ा है, जिसे उसे दुरुस्त करना होगा या समानान्तर एक ऐसी व्यव्स्था क़ायम करनी होगी जिसके ज़रिये युद्ध से शांति की ओर हम जा सकें. युद्ध होने के हर उस वजह को पहले ही रोक सकें, युद्ध शब्द की जगह शांति के प्रयास पर ज़्यादा ज़ोर दे सकें? मगर ये संभव कैसे होगा ?

संयुक्त राष्ट्र का ‘भविष्य का शिखर सम्मेलन’ उसको एक दुर्लभ अवसर मुहैया करा रहा है. जिसके ज़रिए वो अपनी विश्वसनीयता को उबारने और अंतरराष्ट्रीय शांति एवं स्थिरता के ख़तरों से निपटने की अपनी ज़िम्मेदारी के लिए ख़ुद को नए सिरे से तैयार कर सके.

आज दुनिया भर में एक दर्जन से ज़्यादा युद्ध छिड़े हुए हैं. ये म्यांमार के गृह युद्ध और ग़ज़ा पट्टी में इज़राइल और हमास के संघर्ष से लेकर यूरोप में रूस और यूक्रेन की जंग और दक्षिणी सूडान में हिंसा तक फैले हुए हैं. बीते सालों की तरह 2023 में जहां इन संघर्षों के दायरे और गंभीरता का ज्वार बदलता रहा, वहीं एक बात इस साल भी पिछले कुछ वर्षों जैसी ही रही- संयुक्त राष्ट्र का फुर्तीले और प्रभावी ढंग से इन परिस्थितियों से निपटने में अक्षम साबित होना.

दूसरे विश्व युद्ध के अंत के समय, जिस संयुक्त राष्ट्र की एक महान परियोजना के तौर पर बड़ी उम्मीदों और तारीफ़ों के साथ शुरुआत हुई थी, वो आज पूरी तरह से असहाय नज़र आ रहा है. आज संयुक्त राष्ट्र अपने चार्टर द्वारा तय अपनी मुख्य ज़िम्मेदारी- अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने- यानी अपने अस्तित्व की बुनियाद को ही पूरा करने में नाकाम साबित हो रहा है. और, इसका भविष्य भी कोई उज्जवल नहीं दिख रहा है. UN के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस  ने चेतावनी दी है कि आने वाले समय में ‘तनाव, विभाजनकारी गतिविधियां और उससे भी बुरी स्थितियां बढ़ने वाली हैं.’

संयुक्त राष्ट्र अपने चार्टर द्वारा तय अपनी मुख्य ज़िम्मेदारी- अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने- यानी अपने अस्तित्व की बुनियाद को ही पूरा करने में नाकाम साबित हो रहा है.

आख़िर क्या कारण है कि 75 साल से भी अधिक पुराना संयुक्त राष्ट्र अपनी प्राथमिक ज़िम्मेदारी नहीं निभा पा रहा है? आलोचकों ने इसके पीछे कई वजहों की तरफ़ इशारा किया है. पांच स्थायी सदस्यों के बीच आम सहमति न बन पाने की वजह से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) का लाचार हो जाना, मौजूदा शक्ति संतुलन का अक्स न दिखना और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व होना,

अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर राष्ट्रीय हितों को तरज़ीह देने जैसे तमाम कारणों ने संयुक्त राष्ट्र के ऊपर भरोसे, इसकी वैधानिकता और विश्वसनीयता के छीनते जाने में योगदान दिया है. अगर इसके सदस्य देश इन मसलों को हल करने के लिए त्वरित रूप से क़दम नहीं उठाते हैं, तो आने वाले समय में संयुक्त राष्ट्र अपने पूरी तरह बेकार हो जाने की दिशा में आगे बढ़ता रहेगा.

तेज़ी से इस्तेमाल में आ रही नई नई तकनीकें अब ऐसे औज़ार मुहैया करा रही हैं, जो युद्ध लड़ने के तौर-तरीक़ों में ऐसी जटिलताएं और तबाही ला रहे हैं, जो पहले कभी देखी-सुनी नहीं गईं. यही नहीं, संघर्ष के समय को सीमित करने के बजाय ये तकनीकी क्षमताएं, उनका वक़्त और बढ़ा रही हैं. फिर भी, संयुक्त राष्ट्र के पास ऐसी कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है कि वो इन नई उभरती तकनीकों को हथियार बनाकर इस्तेमाल करने और इनके विस्तार पर कोई नियंत्रण स्थापित कर सके.

आने वाले साल में ये चलन और मज़बूत होगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने की ज़िम्मेदारी निभाना संयुक्त राष्ट्र के लिए और भी मुश्किल होता जाएगा.

जंग और संघर्ष के प्रति इस रुझान को देशों की बदलती  मानसिकता से भी बल मिल रहा है. आज बहुत से देश अपने विवादों को वार्ता की मेज़ पर सुलझाने के बजाय, युद्ध के मोर्चे पर निपटाने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं.

Imp- इथियोपिया के टिगरे में छिड़ी जंग और नागोर्नो -काराबाख़  में अज़रबैजान का सैन्य अभियान, देशों के नज़रिए में आए इस बदलाव का प्रतीक है. आज देशों को शांति के लिए बहुपक्षीय माध्यमों को इस्तेमाल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसका नतीजा ये हुआ है कि कूटनीति और शांति स्थापित करने के प्रयास नेपथ्य में चले गए हैं. आने वाले साल में ये चलन और मज़बूत होगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने की ज़िम्मेदारी निभाना संयुक्त राष्ट्र के लिए और भी मुश्किल होता जाएगा.

एक और प्रमुख चलन जो देखने को मिल रहा है, वो ताक़त के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ दबाव बनाने वाले असैन्य तौर तरीक़ों जैसे कि प्रतिबंधों और व्यापारिक पाबंदियों की धार का कुंद होना भी है. पांच स्थायी सदस्यों के बीच असहमति के कारण, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पाबंदियों वाली व्यवस्था के कारगर साबित नहीं होने की वजह से, पश्चिमी देश अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा ढंग से प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था लागू कर रहे हैं. फिर भी, कुछ गिने चुने मामलों को छोड़ दें तो, ये प्रतिबंध उनके बर्ताव में कोई बदलाव ला पाने में नाकाम रहे हैं, और आने वाले समय में हम देखेंगे कि अपने दुश्मनों से सीधी लड़ाई लड़ने से बचने के लिए नीतिगत क़दमों के तहत प्रतिबंधों का इस्तेमाल और बढ़ेगा.

सितंबर 2024 में संयुक्त राष्ट्र अपनी महत्वाकांक्षी, ‘समिट ऑफ दि फ्यूचर’ को आयोज़ित करने जा रहा है. इस सम्मेलन के दौरान तय कार्यक्रमों में ‘शांति के लिए नया एजेंडा’ भी शामिल है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने पहले ही शांति स्थापना और एक प्रभावी सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को आकार देने के लिए अपना विज़न सामने रख दिया है. और आज इस मंच से जो बातें उठेंगी उम्मीद यही कि वो भी सितंबर के कार्यक्रम में मदद करेंगी.

इस विज़न को हक़ीक़त बनाने के लिए UN को ये मानना पड़ेगा कि ज़रूरी नहीं है कि कुछ संघर्षों की जड़, प्रतिद्वंदिता में हो, बल्कि इनके पीछे संसाधनों की क़िल्लत, जलवायु परिवर्तन, ग़रीबी और आर्थिक असमानता जैसे कारण भी हो सकते हैं. फिर उसको इसी हिसाब से संघर्ष रोकने और सदस्य देशों को संभावित संघर्षों के प्रति पहले से आगाह करने के लिए नए तरीक़े विकसित करने होंगे. इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र को उभरती तकनीकों की ख़तरनाक भूमिका को ध्यान में रखते हुए उनके प्रसार को रोकने के लिए वैश्विक प्रशासन की ऐसी रूप-रेखा विकसित करनी होगी, जिससे ग्लोबल साउथ, इन तकनीकों के सकारात्मक लाभों से वंचित न रहे.

UN को चाहिए कि वो इस मुश्किल मगर उम्मीदों भरे रास्ते पर चले ताकि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने की अपनी ताक़त को मज़बूती दे सके.
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विफलताएं

सफलता की तमाम कहानियों के बीच संयुक्त राष्ट्र की विफलताएं अक्सर छिप जाती हैं और उन पर ज्यादा बात भी आमतौर पर नहीं होती है.

पच्चीस साल पहले अफ्रीका के रवांडा में 100 दिन के भीतर लगभग आठ लाख लोगों की हत्या कर दी गई.

इस नरसंहार के दौरान संयुक्त राष्ट्र के शांति रक्षक रवांडा में मौजूद थे. लेकिन उनकी भूमिका सरकारी अधिकारियों और हमवतन लोगों को निकालने तक सीमीत थी.
संयुक्त राष्ट्र की बड़ी नाकामी का दूसरा चेहरा यूरोप में सरबेनीसा में नज़र आया.

जुलाई 1995 में, बोस्नियाई सर्ब सुरक्षाबलों ने सरबेनीसा में आठ हज़ार से अधिक लोगों की हत्या कर दी.
मारे गए लोगों ने उस जगह पनाह ली थी, जहां उन्होंने संयुक्त राष्ट्र शांति-रक्षकों के पहरे में ख़ुद को महफ़ूज़ समझा था.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप की धरती पर इतने बड़े पैमाने पर सामूहिक हत्या का ये पहला मामला था.

इसी तरह यूगोस्लाविया के संघर्ष में संयुक्त राष्ट्र की सुस्ती साफ़ नज़र आई. वियतनाम और इराक़ युद्ध में संयुक्त राष्ट्र को पूरी तरह से दरकिनार किया गया.

सीरिया में गृहयुद्ध के दौरान भी संयुक्त राष्ट्र शांति वार्ता की राह खोलने में नाकाम रहा. कई मौकों पर ऐसा भी हुआ जब संयुक्त राष्ट्र, समाधान के बजाए समस्या का हिस्सा बना.

यहां तक कि ब्लू हैलमेट वाले शांतिरक्षकों पर भी कई गंभीर आरोप लगे. इन तमाम घटनाओं की पृष्ठभूमि में संयुक्त राष्ट्र को अपनी कार्यप्रणाली के बारे में विचार करना चाहिए.
लेकिन ऐसा कम ही देखने को मिलता है जब संयुक्त राष्ट्र को इसके लिए वक्त मिला हो.

संयुक्त राष्ट्र, सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की बीच अक्सर अखाड़े की शक़्ल में नज़र आया है जहां एक तरफ़ अमरीका-ब्रिटेन और दूसरी तरफ़ रूस-चीन देखे गए हैं.
खेमों में बंटे सुरक्षा परिषद की झलक उसके आम सदस्यों में भी नज़र आती है. नतीजा ये होता है कि भारत जब सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की दावेदारी करता है, तो आतंकवाद को पालने पोसने और बढ़ावा देने वाला पाकिस्तान भी इसका विरोध करता है और अपने लिए भी यही दर्जा मांगता है.

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मौजूदा  विश्व व्यवस्था और संघर्षों के उभार की वजह से संयुक्त राष्ट्र के लिए शांति की राह तलाशना अब निश्चित रूप से एक चुनौती भरा  प्रयास बन गया है. ये बात भी सच है कि जब बात सुधार करने की आएगी, तो UN को राजनीतिक और प्रक्रिया संबंधी चुनौतियों से निपटना होगा. हालांकि, ‘समिट ऑफ दि फ्यूचर’ संयुक्त राष्ट्र को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक गति देगा ताकि वो ख़ुद को उपयोगी और दूरगामी संगठन बना सके. UN को चाहिए कि वो इस मुश्किल मगर उम्मीदों भरे रास्ते पर चले ताकि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने की अपनी ताक़त को मज़बूती दे सके. जैसा कि महासचिव गुटेरेस  ने ज़ोर देकर कहा कि, संयुक्त राष्ट्र को ‘सुधरना या टूटना होगा.’ तो इस मंच से जहां अलग अलग देशों के तमाम प्रतिनिधियों की मौजूदगी है मैं इस बात को ज़ोर देकर कहना चाहूँगी कि बदलते वैश्विक परिवेश में आप अपनी भूमिका में पूरी तरह से प्रभावी रहें वरना तमाम शांति प्रिय देशों को इसके समानांतर एक ऐसी व्यव्स्था खड़ी करनी होगी जो युद्ध होने और उसके बाद शांति की दिशा में आगे बढ़ने की बजाय ऐसा सशक्त माध्यम तैयार करें जो युद्ध होने की तमाम वजहों को पहले ही ख़त्म करे. आप विश्वास को बढ़ाये एक दूसरे पर हावी होने की बजाय जो भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से अक्सर वैश्विक मंचों पर ज़ोर देकर कहा जाता है कि हम आपस में विश्वमित्र बनें.
आख़िरी में भारत के कण कण में व्याप्त लाइनों के साथ अपनी वाणी को विराम देना चाहूँगी जिससे वसुधैव कुटुम्बकम की भावना और ज़्यादा मज़बूत हो-
सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

धन्यवाद , नमस्कार
चित्रा त्रिपाठी
जर्नलिस्ट
आजतक, इंडिया